उत्तर भारत में चढ़ी हुई सामग्री (निर्माल्य) के प्रयोग का निषेध किया है जबकि दक्षिण भारत में उपाध्याय जाति के लोग इसका प्रयोग करते हैं वहाँ निषेध नहीं है, ऐसा विरोधाभास क्यों?
ऐसा शास्त्र में कहीं नहीं लिखा कि उत्तर भारत के लोग निर्माल्य का भक्षण करेंगे तो पाप लगेगा और दक्षिण भारतीय लोगों को कोई लाइसेंस मिला हुआ है; वह निर्माल्य का भक्षण करें, उनको पाप नहीं लगेगा। आगम में तो एकदम स्पष्ट लिखा है कि जीर्णोद्धार आदि के निमित्त, जिनेंद्र भगवान की पूजा आदि के निमित्त, वंदन आदि के निमित्त अर्पित विशेष धन का जो उपभोग करता है, वह नरकगति में त्रिकाल तक दुःख भोगता है। वह अपने पुत्र तक से दूर हो जाता है, चाण्डाल बनता है, पन्गु बनता है, मूक बनता, बहरा बनता, अंधा बनता है। जो जिनपूजा, भगवान की पूजा साम्रगी रखता हो वह ऐसा बनता है। इसलिए आगम का ये सार्वभौमिक नियम है। दक्षिण भारत में ये परिपाटी नहीं बनी होगी। उस काल में वहाँ का चढ़ावा ज्यादा रहता होगा तो एक वर्ग विशेष को बना दिया गया होगा। लेकिन शांतिसागर जी महाराज आदि एवं बाद में भी मुनिराज, उपाध्याय लोग इसी कारण से लोगों से आहार नहीं लेते। इसलिए दोष तो दोष ही है, चाहे उत्तर भारत हो या दक्षिण भारत।
समाधान और शंका अलग अलग है।