पहले धर्म या इंसानियत?

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शंका

धर्म और इंसानियत में पहले किसे महत्त्व देना चाहिए?

समाधान

इंसानियत धर्म का ही एक रूप है। आप यह पूछ सकते हैं कि कोई धार्मिक क्रिया हो और किसी मानव की सेवा हो, इन दोनों में किसे प्रमुखता दें आप? शायद प्रश्न का आशय यह भी हो, कि हम मन्दिर जा रहे हो पूजा करने और रास्ते में कोई कराहता इंसान मिले तो हम भगवान की पूजा के लिए जाएं या उस कराहते इंसान की पीड़ा को हरें, उसकी सेवा सुश्रूषा करें?  यदि प्रश्नकार का यह आशय है, तो मैं एक प्रसंग सुनाता हूँ। पंडित टोडरमल जी जैन जगत के एक महान विद्वान् हुए। उनके नेतृत्व में सिद्धचक्र महामंडल विधान हो रहा था और उसके मुख्य विधान आचार्य प्रतिष्ठाचार्य पंडित टोडरमल जी थे, घर से शुद्ध धवला वस्त्र पहनकर मन्दिर के लिए निकले। रास्ते में उन्हें एक कराहती हुई वृद्ध महिला दिखी, फिसल कर गिर गई थी, कमर की हड्डी टूट गई। उन्होंने अपने शुद्ध वस्त्रों की परवाह किए बगैर, उस बुढ़िया को उठाया, चिकित्सक के पास ले गए। उसका इलाज कराया और डेढ़ घंटे विलम्ब से वे विधान स्थल पर पहुँचे। तब तक लोगों की आतुरता आक्रोश में बदल चुकी थी। सब लोग एक साथ टूट पड़े – “पंडित जी! कितनी देर कर दी, पूरा पाठ अधूरा रह गया।” उन्होंने जो जवाब दिया, वह बहुत ध्यान देने योग्य है। पंडितजी बोले-  “सच्चा सिद्ध चक्र का पाठ तो आज हुआ है।” सब लोग एकदम चौंक गए और  बोले कि अभी तो पाठ ही नहीं हुआ और आप कह रहे हैं कि पाठ हो गया। यह कैसे? पंडित जी ने रास्ते की पूरी घटना सुनाई और कहा “देखो भगवान के चरणों में जो पूजा करते हैं वह तो केवल द्रव्य पूजा है पर किसी जीते जागते प्राणी की सेवा करते हैं वह भाव पूजा से कम नहीं।”

धर्म के इस आशय को भी हमें देखना चाहिए। आप भगवान के चरणों में घंटे भर बाद अर्घ चढ़ा दोगे तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन प्यासे को पानी पिलाने में घंटा भर का विलम्ब करोगे तो उसके प्राण भी निकल सकते हैं। इसलिए हमें जहाँ, जो, जब, जैसी, जरूरत है, वैसा करना चाहिए।

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