Letter ‘I’- इंटरेस्ट (INTEREST), इग्नोर (IGNORE), इन्वोल्व (INVOLVE), इंस्पायर (INSPIRE)

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Letter ‘I’- इंटरेस्ट (INTEREST), इग्नोर (IGNORE), इन्वोल्व (INVOLVE), इंस्पायर (INSPIRE)

मनुष्य का संपूर्ण जीवन उसकी रुचि के अनुसार होता है। हमारी सारी प्रवृत्तियाँ हमारी रूचि के अनुरूप होती है। जैसी अभिरुचि होती है वैसा काम होता है। जिस व्यक्ति का जिस क्षेत्र में इंटरेस्ट, वह उसी क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता है। किसी का व्यापार में इंटरेस्ट है तो व्यापार में रस लेता है। किसी का खेलने में इंटरेस्ट है तो खेलने में रस लेता है। जिसका जिस फील्ड में इंटरेस्ट है वह उसी फील्ड की ओर आगे बढ़ने की कोशिश करता है। संत कहते हैं, ‘हमारा सारा जीवन हमारी रूचि के अनुरूप होता है’। अपनी रुचि को टटोलो। तुम्हारी रुचि क्या है? कैसी रूचि है?

अल्फाबेट में आज आई (I) के संदर्भ में बोलना है और सबसे पहली बात है- आई फॉर इंटरेस्ट (INTEREST)। तुम्हारा इंटरेस्ट किसमें है? पैसे में, मौज मस्ती में, दुनियादारी में, गोरखधंधे में, भोग-विलास में, नाम-चाम में, किस में? एक इंटरेस्ट जो तुम्हारे संसार का विस्तार करता है और एक इंटरेस्ट है जो तुम्हारे संसार को समेटता है। एक इंटरेस्ट है जो तुम्हें दुःखी  बनाता है और एक इंटरेस्ट है जो तुम्हारे सारे दुःखों को समाप्त करता है। तुम्हारा इंटरेस्ट किसमें है? अपने मन को टटोलिए। किस में रुचि है? पाप में रूचि है कि धर्म में रूचि है? महाराज! अब तक का अगर हिसाब बताऊं और पूछो तो अभी तक तो पाप में ही इंटरेस्ट रहा है और जब से आप लोगों का समागम पाया थोडा-थोडा धर्म में इंटरेस्ट बढ़ा है। बढ़ा है ना? संत कहते हैं, ‘अपने जीवन का कल्याण करना चाहते है, अपने जीवन का उद्धार करना चाहते हो तो अपना इंटरेस्ट धर्म में बढ़ाओ’। जन्म जन्मांतरों के संस्कार ऐसे बने रहे हैं जिससे हमारी पाप पूर्ण बुद्धि रही, पाप में रुचि रही, पाप में मति रही, सारा जीवन पापमय रहा, उस रूचि को बदलिए। परमार्थ के लिए रुचि जगाइए, अपने प्रति अपनी आत्मा की ओर अभिरुचि जगाइए, अपनी आत्मा के अभिमुख होने का प्रयत्न कीजिए। इंटरेस्ट किस चीज में है? कुछ लोगों को पैसा कमाने में बहुत इंटरेस्ट होता है, तो कमाइए। महाराज! पैसा नहीं कमाएंगे तो जीवन कैसे चलेगा, तो चलाइए। पैसा तुम्हारी जरूरत है, पैसा कमाना तुम्हारी जरूरत है कि तुम जरूरत के लिए कमा रहे हो। जरूरत के लिए कमाओ एक सीमा तक। इंटरेस्ट रखो ठीक, लेकिन कमाना ही तुम्हारी जरूरत बन जाए तो यह बहुत बात ठीक नहीं है। जीवन के निर्वाह के लिए जो साधन अपेक्षित है उन्हें स्वीकार करो लेकिन सारा जीवन ही उसी में खपा दो यह बात कतई ठीक नहीं है। इंटरेस्ट कहाँ है ?, ईमानदारी से बोलना। भगवान की पूजा करते समय तुम्हारा जो इंटरेस्ट रहता  है, पिक्चर जाते समय जो इंटरेस्ट रहता है दोनों की तुलना करो किसमें इंटरेस्ट ज्यादा रहता है? पिक्चर में ज्यादा रहता है इसलिए ही तुम लोगों की पिक्चर खराब हो रही है। पाप में स्वभाविक रुचि होती है परमार्थ में रुचि जगानी पड़ती है। इस पाप पूर्ण रूचि को धर्म-रूचि में परिवर्तित करना हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है।

मोक्षमार्ग की शुरुआत सम्यकदर्शन से होती है और सम्यकदर्शन कब प्रकट होगा? जब हमारी रूचि अपने प्रति होगी, धर्म के प्रति होगी। धर्म में रूचि जगाइए, आत्मा के प्रति रुचि जगाइए, स्वयं के प्रति जगाइए। इंटरेस्ट विद इन (with  in), अपने बारे में तुम्हारी कितनी रूचि है? दुसरे के बारे में तुम्हारी सारी अभिरुचि है, वह क्या कर रहा है, कैसे कर रहा है, क्या नहीं कर रहा है, क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए, उसकी हरकतें क्या है, उसकी पसंद क्या है, उसकी प्रवृत्ति क्या है, उसकी हॉबी क्या है सब पता है और खुद का? मनुष्य की बहुत बड़ी कमजोरी है वह सारे जमाने की बात करता है पर खुद के प्रति अनजान बना रहता है। संत कहते हैं, ‘अपने प्रति अपनी रुचि जगाओ’।

आचार्य कुंदकुंद कहते हैं-

अप्परुई सम्मत्तं। (टाइम-8:30)

आत्मा की अभिरुचि का नाम ही सम्यक्त्व है, सम्यकदर्शन है। जिसकी स्व में रूचि लग गई, जग गई उसकी पर-रूचि में रुचि समाप्त हो जाती है, उसे सब कुछ उसे अरुचिकर  लगने लगता है। कहता है यह सब व्यर्थ है क्योंकि जो रस भीतर है वह बाहर नहीं है। वह भीतर की रुचि एक बार जगे तो सही, भीतर की रुचि जगाइए, अपने आप के प्रति मुड़िये, मोड़ने की कोशिश कीजिए। कैसे जगे? जब दुनियादारी की बातों  की असारता का विचार करोगे तब तुम्हें वह सब व्यर्थ लगने लगेंगे। तब समझ में आएगा यही ठीक है। आप कोई भी काम करते हो पहली बार करते समय जितनी रुचि होती है क्या दूसरी बार में भी उतनी रुचि होती है? तीसरी बार में? चौथी बार में? ग्रेजुअली रूचि घटती जाती है। है ना अनुभव? एक पिक्चर ही देखने के लिए गए पहली बार में मूवी बढ़िया मूवी और मनपसंद मूवी। पहली बार में जितनी रुचि से आपने देखा दूसरी बार में उतना इंटरेस्ट नहीं आता, तीसरी बार में और कम, चौथी बार में और कम, ग्रेजुअली इंटरेस्ट कम होता जाता है। क्यों? क्योंकि यह देखी हुई चीज है। फिर तीन-चार बार देख ले तो? अरे! क्या देखना चार बार तो देख ली। रुचि समाप्त। एक पिक्चर को तुम बार-बार नहीं देखना चाहते, एक दृश्य को तुम बार-बार नहीं देखना चाहते, एक काम को तुम बार-बार नहीं करना चाहते।

लेकिन संत कहते हैं ‘अब तक जो तुम कुछ कर रहे हो वो सब वही तो कर रहे हो, बार-बार ही तो देख रहे हो, बार-बार ही तो कर रहे हो’। अंतर क्या है? अंतर केवल इतना है कि संसार में तुम किसी कार्य को एक बार करते हो और दोबारा करते समय ऐसा लगता है कि यह कर चुके हैं, यह देख चुके हैं, यह भोग चुके हैं, मुझे नहीं करना है लेकिन अपने जीवन में जो भी अनुभव कर रहे हो। उसे तुम नया मानकर कर रहे हो, है तो पुराना। हर अनुभव पुराना है, बोलो! ऐसा एक भी अनुभव है तुम्हारे जीवन का जिसे नया अनुभव कहा जा सके, एक भी अनुभव? सब पुराना है। जब पुराने को पसंद नहीं करते हो तो बार-बार उसी में क्यों लगे हो? नया कुछ करो। महाराज! पुराना है पर नया लगता है। इसी का नाम छलावा है। जिस पल तुम्हें यह समझ में आ जाए कि यह जो कुछ भी मैं कर रहा हूँ यह सब पुनरावृति है, अनादि से करता आया हूँ, अनंत काल से कर रहा हूँ, इसमें कुछ भी नया नहीं है, सब वही चक्कर है। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं-

सुद परिजिदानभूदा सव्बसवि काम भोग बंध कहा (time -12:16 )

एय्यत्तसुवलम्भो नवरिनसुलहो इह तस्स:

तुम्हारे द्वारा काम, भोग और बंध की कथाएं जन्म-जन्मांतरों में सुनी गई, जन्म-जन्म में परिचय में आई और हर जन्म में तुमने उसका ही अनुभव किया। अब तक अपने जीवन में क्या किया? काम, भोग और और बंध। भोग, विलास, मौज-मस्ती इसके अलावा और क्या किया, बोलो? कुछ नया किया? नहीं! जन्म जन्मांतरों में, इस जीवन में ही नहीं अनादि से केवल यही करते रहे। संत कहते हैं, ‘अगर सुनना है तो उसे सुनो, जो आज तक अनसुना रहा है और जिसे सुन लेने के बाद फिर कुछ सुनना बाकी ना रह जाए’। परिचय पाना है तो उसका परिचय पाओ जो अब तक अपरिचित रहा है और जिसका एक बार भी परिचय पा जाने के बाद फिर और कोई परिचय बाकी ना रहे। अनुभव करना चाहते हो तो उसका अनुभव करो जो आज तक अन-अनुभूत रहा है और जिसके अनुभूति के बाद और कोई दूसरा अनुभव बाकी ना रहे। जिस पल तुम्हें यह आभास हो जाएगा कि यह तो मैं अनादि से करता आ रहा हूँ , उसी पल तुम्हारी रुचि बदल जाएगी। देखो, समीक्षा करो, विचार करो कि मैंने अभी तक क्या-क्या किया? जो कुछ भी किया, वह क्या हुआ? सबने संसार को बढ़ाया और क्या किया? आवागमन के चक्र में उलझा रहा और क्या किया? विषय-भोगों में रमा रहा और क्या किया? भोग-विलास में उलझा रहा और क्या किया? मिला क्या? पाया क्या? आकुलता, अतृप्ति, पीड़ा और प्यास, इसके अलावा और क्या मिला? कुछ भी नहीं मिला, लेकिन फिर भी उसी में लगे रहे। एक मृगमरीचिका में मनुष्य दौड़ रहा है, दौड़ता जा रहा है, दौड़ता जा रहा है जिस दिन तुम्हें यह सब बातें असार सी प्रतिभाषित होने लगेगी उसी दिन तुम्हारे जीवन की चर्या परिवर्तित हो जाएगी। तुम्हारा इंटरेस्ट खत्म हो जाएगा, दूसरा इंटरेस्ट क्रिएट होगा। विषयों का आकर्षण विषयों में रुचि बढ़ाता है जिस दिन उनकी असारता का आभास हो जाएगा आत्मा में रूचि जग जाएगी, रुचि बढ़ जाएगी। अभी तक इंटरेस्ट है पर में, अब इंटरेस्ट जगाओ निज में।

अपने आप में अपना इंटरेस्ट जगाओ और एक बात ध्यान रखना पर के संसर्ग से तुमने अब तक जो कुछ पाया है वह सब व्यर्थ है निज के अनुभव से जो पाओगे वह शाश्वत होगा। उसका किसी से कोई मोल नहीं है, उसको किसी से कोई तुलना नहीं है, वह अद्भुत है, अनुपम हैं, उसे जानो। अभी तक तुम अनात्मा में रूचि रखें अब आत्मा में रूचि रखो। इंटरेस्ट within। अपनी तरफ, अपने आप के प्रति, स्वयं के प्रति रुचि जगाओ। देखो, तुम्हारे पास क्या है? अनंत सुख के धाम हो, अक्षय निधियों के अधिपति हो तुम, पर तुम्हारी उसके प्रति कोई रुचि ही नहीं, उस तरफ तुम देखने की कोशिश ही नहीं करते, तुम्हारी सारी रूचि बाहर-बाहर की चीजों में है, इसलिए बाहर बाहर भटकते रहे हो। उसका परिणाम उल्टा-पुल्टा बनता रहता है। संत कहते हैं ‘यह बाहर बाहर की भागदौड़ अंततः कुछ भी देने वाली नहीं है उसे रोको, विराम दो, अपनी तरफ मोड़ने की कोशिश करो’। पर की रूचि को छोड़ो, निज की रूचि को जगाओ, मोड़ो। इंटरेस्ट क्रिएट करो। आप लोग प्रवचन सुनते हो इंटरेस्ट फुली सुनते हो या बिना इंटरेस्ट के सुनते हो। महाराज! इंटरेस्ट नहीं होता तो आते क्या? यह देखते है कि कब 8:20 हो और हम पहुंच जाएं। इंटरेस्ट है ना? बंधुओं! जितना इंटरेस्ट प्रवचन के प्रति है न उतना इंटरेस्ट यदि प्रवचन की बातों के प्रति हो जाए तो जीवन का मजा ही कुछ और हो जाए। रुचिपूर्वक प्रवचन सुनना बहुत अच्छी बात है और प्रवचन की बातों में रुचि रखना उससे अच्छी बात है। हमारी रूचि बदलनी चाहिए। अगर मेरी अभिरुचि नहीं बदली मेरा इंटरेस्ट वही का वही रहा तो मेरे द्वारा की जाने वाली सारी क्रियाएँ  केवल सतही ही मानी जाएगी। बहुत मुश्किल होता है इस रूचि को बदलना। हमारे शास्त्रीय भाषा में कहा जाता है मिथ्या रुचि और सम्यक रुचि। मिथ्या यानी भ्रांति, भ्रांति पूर्ण अवधारणा, मनुष्य के अंदर अपने आप बनी रहती है, अनादि से है। उसको पलट कर सही रूचि, सम्यकत्व की और रूचि जगाना बहुत कठिन है। एक बार वो अभिरुचि जग गई तो बाकी सारी बातें व्यर्थ लगने लगती है, लगता है यह सब तुम्हें कर चुका। इसमें अब कोई रस नहीं, मेरा इस में कोई झुकाव नहीं। देखो! रुचि के परिवर्तन से, अंदर की रुचि जागने से क्या परिवर्तन आता है।

एक स्थान पर मैं था, पर्युषण पर्व था, सार्वजनिक प्रवचन थे, जैन-अजैन सभी आते थे। एक संभ्रांत-से व्यक्ति प्रवचन में मुझे दिखे। मैंने देखा, समय से पूर्व व्यक्ति आता, आगे आकर के बैठता और बड़ी गंभीरता से मेरी बातों को सुनता। उसकी भाव-भंगिमा से लगता कि यह प्रवचनों को सुन नहीं रहा है प्रवचन का रसपान कर रहा है बात गहरे उतर रही है। मेरा उससे कोई खास परिचय तो था नहीं, पहली बार देखा, बस वह मंच पर दिखता था, पंडाल में दिखता था उसके बाद वह अपने काम में, मैं अपने काम में। दशलक्षण पूरे हुए, दस उपवास करने वालों के सामूहिक पारणा की व्यवस्था थी। दस उपवास वाले लोग जब आशीर्वाद लेने के लिए आए तो उसमें वह व्यक्ति भी था। मैंने पूछा, आपने भी दस उपवास किए? उसने बोला जी महाराज! मैंने अपने जीवन में पहली बार पुरुषार्थ किया है। भीड़-भाड़ थी, ना मैंने उनका परिचय पूछा ना उनने कुछ बताया। दोपहर में जैसे ही मैं सामायिक से उठा वह व्यक्ति मेरे कक्ष में प्रवेश किया, चरणों में शीष रखकर फूट-फूट कर रोना शुरु कर दिया। फूट फूट कर रोना शुरु कर दिया और कहा महाराज! मैं जैन हूँ, एक इंजीनियर थे और कंस्ट्रक्शन की एक बड़ी कंपनी में प्रोजेक्ट मैनेजर की पोस्ट पर थे। उन्होंने कहा, महाराज! मैं जैन हूँ पर अब तक केवल मैं नाम का जैनी था, हाई सोसाइटी के नाम पर मैंने वह सब कर्म किए जो मुझे नहीं करने चाहिए। इस दशलक्षण के पहले तक, एक दिन पहले तक, मेरा हाल बहुत खराब था। शराब, शबाब और कबाब, मैं तीनों में लीन था। धर्मपत्नी के प्रबल आग्रह पर मैं पहले दिन प्रवचन में आया और आपका प्रवचन सुनते ही मेरी रुचि बदल गई, मुझे लगने लगा कि अब तक मैंने जो कुछ किया वह सब बेकार है। महाराज! दस दिनो में मैंने जो पाया मुझे लगता है जीवन में कभी नहीं पा सका। मैंने पहले ही दिन यह फैसला किया कि अब दस दिन का मुझे उपवास करना है। महाराज पहले में पाँच मिनट भी भूख बर्दाश्त नहीं कर पाता था पर आपका आशीर्वाद और मेरे अंदर की लगन, मुझे लगा कि मैंने खूब पाप किया है, मुझे उसका प्रायश्चित करना चाहिए। मैंने अपनी आत्मा को खूब मलिन बनाया है अब उसे उज्जवल बनाना चाहिए। इसी प्रेरणा और भाव से मैंने दस दिन के उपवास किए। महाराज! आज मेरा मन बड़ा प्रसन्न है, आज जब आपके चरणों में आकर मैं अपनी सारी बुराइयाँ त्यागना चाहता हूँ, आप आशीर्वाद दें। मैंने देखा, व्यक्ति का मन भीगा हुआ है और अब इसे ज्यादा उपदेश देने की जरूरत नहीं है। मैंने उसे संकल्पित कराया और कहा अगर सुबह का भूला शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते लेकिन अपने संकल्प का ध्यान रखना और जीवनभर निर्वाह करना। उस व्यक्ति ने कहा – महाराज! अब मेरे मन में कोई विकल्प नहीं है, मैं एक बार मुड़ गया सो मुड़ गया। अब उस तरफ इच्छा ही नहीं होती, अभी तक मैंने इसका रस नहीं लिया था इसलिए वह सब चीजें मुझे अच्छी लगती थी अब दस दिनों में ऐसा रस आ गया कि बाकी सब बातें मुझे नीरस लगने लगी है। इतनी सी बात हुई और छः महीने बाद वह व्यक्ति मेरे पास दोबारा आया। उसकी चर्या जब मैंने सुनी तो मुझे खुद को आश्चर्य हुआ। उस व्यक्ति का ट्रांसफर हो गया था वह मध्य प्रदेश से अजमेर आ गया था। बोला, महाराज! जी मेरी जो साइट है वो मेरे यहाँ से जब मैं निकलता हूँ तो करीब एक डेढ़ घंटे का रास्ता है, मैं स्वाध्याय करने लगा, मैं दो टाइम सामायिक करता हूं, मेरे परिणाम बहुत अच्छे होने लगे, मैं पूजन भी करता हूँ  और अपनी सारी धार्मिक क्रियाएँ करता हूँ और महाराज जी! अब मैंने रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया है और दो वक्त भोजन का नियम ले लिया है । एक दिन मैंने स्वाध्याय में पढ़ा कि सड़क का चला भोजन नहीं करना चाहिए तो मैं अपने काम के लिए निकलता हूँ 9:00 बजे मुझे पहुंचना पड़ता है तो 7:30 बजे मैं घर से निकलता हूँ, खाना खाकर निकलता हूँ और दिन छिपने के पहले लौट पाया तो शाम का भोजन लेता हूँ नहीं तो एक ही बार भोजन लेकर अपना काम चलाता हूँ । मैंने उससे पूछा कि यह सब करने में आपको कठिनाई नहीं होती तो बोला महाराज! अब रुचि बदल गई है। जब तक इधर रुचि नहीं थी यह कठिन दिखता था, जबसे रुचि जग गई तो इसके अलावा और कुछ दिखता नहीं, लगता है बस यही करो। अपने इंटरेस्ट को जगाइए बुरे कामों में तुम्हारी जितनी गाढ रुचि है वह तुम्हारा पतन कराएगी। अच्छे कार्य में अपनी अभिरुचि बढ़ाइए, जितना-जितना इंटरेस्ट पड़ेगा, अभिरुचि बढ़ेगी। तुम्हारे जीवन का पथ उतना-उतना प्रशस्त होगा और ऐसी रुचि की वृद्धि का भाव निरंतर बढ़ते रहना चाहिए। मेरा इंटरेस्ट बढ़े पर इंटरेस्ट क्यों नहीं बढ़ता? इंटरेस्ट नहीं बढ़ने का कारण?

इग्नोरेंस (IGNORANCE)! क्या है इग्नोरेंस? मतलब अज्ञानता, आत्म-अज्ञान अभिरुचि को प्रकट नहीं होने देता। आत्म-ज्ञान को एक बार प्रकट कर लिए, इग्नोरेंस मिटा, ज्ञान प्रकट होगा, समझ आ जाएगी तो तुम्हारी रूचि अपने आप बदल जाएगी। एक पल में रूचि बदलती है। अज्ञान मनुष्य को पाप की ओर धकेलता है तो ज्ञान मनुष्य को सन्मार्ग में स्थिर करता है। अपनी रुचि को जगाना चाहते हो, अज्ञान को मिटाओ। अनादि से अज्ञान है। तुम्हें पता ही नहीं है कि तुम क्या हो? तुम्हारे भीतर क्या है? कोई पता नहीं। देखिए! कोई व्यक्ति जिस घर में रह रहा हो उस घर के नीचे खजाना भरा हो और उसको उसका पता ना हो तो वह खजाना उसके किसी काम का होगा? खजाना, अपार खजाना है लेकिन उसको पता नहीं है, घर मे रह रहा है पर उसको पता नहीं है, उसका जीवन कैसे रहेगा? दारिद्र पूर्ण रहेगा, गरीबी का रहेगा, अभाव और अल्पता का रहेगा, कि नहीं रहेगा? लेकिन जैसे ही उसको पता लग गया, क्या होगा? अरे! मैं तो मालामाल हूँ , मेरे पास तो अपार धन है, उसका जो हाल-चाल बदलेगा कि नहीं बदलेगा, फिर उसकी रुचि भी बदल जाएगी, उसका आनंद भी बदल जाएगा। बदलेगा? संत कहते हैं, ‘तुम्हारे भीतर अक्षय निधि है, अनंत भंडार है पर तुम्हें उसका पता नहीं है’। आत्म-अज्ञान के कारण तुम्हें बाहर की चीजें ही मूल्यवान दिखाई पड़ती है, सबसे अधिक मूल्यवान तत्व तो तुम्हारे भीतर है उसको पहचानो तो, यह जो तुम्हारा दारिद्र भरा जीवन है, कंगाली का जीवन है, फटेहाली का जीवन है, वह पल में ठीक हो जाएगा। उसे पहचानो तो!

अपने घर को देख बावरे,

सुख का जहाँ खजाना रे।

क्यों पर मैं सुख खोज रहा तु,

क्यों पर का दीवाना रे।।

अपने घर में देखो, अपने भीतर झांक कर देखो जहाँ  अक्षय सुख का भंडार है। एक बार देख लोगे तो फिर कहीं जाने की, भटकने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। एक जोहरी था। उसका इकलौता बेटा था। पिता ने अपने बेटे को रास्ते पर लगाने के लिए ढेर सारे प्रयास किए पर बेटे को राह पर नहीं ला पाया। पिता की मृत्यु के बाद बेटे ने अपने बाप की संपत्ति को बेचना शुरू किया। एक-एक करके सारी संपत्ति बेच दी। पास में कुछ भी नहीं बचा। अब जैसे ही सारी सम्पत्ति  समाप्त हो गई, दोस्तों ने भी किनारा काटना शुरु कर दिया। जब खाने को मोहताज होने लगा तो उसे अपने पिता के मित्र का स्मरण आया और वह अपने चाचा के पास पहुंचा। कहा, चाचा! अपनी स्थिति प्रकट की, आप मेरी कुछ मदद करें। चाचा ने कहा, मदद! तेरे को मदद करने की जरूरत क्या है? तू तो अभी भी करोड़पति है, तू तो अभी भी करोड़पति है। अरे! चाचा, कहाँ मजाक कर रहे हैं, सुबह शाम खाने का जुगाड़ नहीं हैं और आप मुझे करोड़पति कह रहे हैं। प्लीज, ऐसा मत कीजिए थोड़ी बहुत मदद दे दीजिए, छोटा-मोटा काम दे दीजिए, जिससे मैं अपना गुजर-बसर कर सकूं। चाचा ने कहा- तुझे इतने दींन-हीन होने की जरूरत नहीं है। तुझे इतने दींन-हीन बनने की जरूरत नहीं है। मैं तुझसे कह रहा हूँ  मजाक नहीं कर रहा हूँ, तुझे सत्य का आभास करा रहा हूँ , तू अभी भी करोड़पति है। उसके चाचा ने जितनी दृढ़ता से कहा उसे सुनकर के अब कुछ कहने की भी उसकी स्थिति नहीं थी। चुपचाप निस्तब्ध खड़ा रहा। चाचा ने कहा- यह गले में क्या है, ताबीज है। किसने पहनाई थी? मेरे पापा ने तो उसने ताबीज को उतार कर खोला , ताबीज को उतारा साधारण सा ताबीज था। तांबे की खोल थी उसने तांबे की परत उतारी। नीचे चांदी की परत मिली। बोले, इसको भी उतार, उतारा तो सोने की पर दिखी। सोना देखकर आंखें चमक गई चाचा बोला- बेटा! इसको भी उतार, जैसे ही सोने की परत उतारी उसके भीतर एक बेशकीमती हीरे का नगीना था और कहा देख बेटा मैं तुझसे कह रहा था ना तू आज भी करोड़पति है। यह जो हीरा है यह रंगीन हीरा है। यह करोड़ों का हीरा है तेरे लिए, तू आज भी मालामाल है। मैं तेरे पिता को जानता था उन्होंने मुझे एक बार कहा भी था कभी बदहाली के दिन आए तो यह ताबीज का रखा हीरा उसके काम में आएगा, जा! अभी हीरे का उपयोग कर और अपने जीवन को निहाल कर दे। बंधुओं! मुझे पता नहीं यह किस व्यक्ति के जीवन की बात है। पर हम सब के ताबीज में वही बेशकीमती नगीना है, हीरा है जिसे हम पहचान लें तो आज ही अपने जीवन को धन्य-धन्य कर ले। पहचानो, तुम्हारे भीतर वह परम तत्व है उस तत्व को पहचानो। जिसमें परम तृप्ति है, आह्लाद  है, आनंद है और शांति है उसे पहचानो, अज्ञानी बने हो, भिखारी बने हो। भिखारियों की दशा तो बड़ी खराब होती है। पिछले साल नवंबर महीने में जब नोटबंदी हुई तो एक समाचार आया कि एक भिखारी के पास हजार और पांच सौ के नोट के एक करोड़ छियासी लाख रूपये निकले। अपनी गद्दी के नीचे बिछाया था। करोड़पति होकर के भी जो भीख मांगे उससे बड़ा अज्ञानी, बेवकूफ और कौन होगा? और वह भिखारी एक नहीं है! क्या हो गया? सब भिखारी है। सब के सब भिखारी हैं अंतर केवल इतना है कोई भिखारी दस-पाँच रुपये की भीख मांगता है। यह थोड़े बड़े भिखारी हैं जो दस-पाँच लाख रुपये की बात करते हैं, भीख तो सभी मांग रहे हैं। सभी मांग रहे हैं, गुरुओं के पास भी जो आते हैं वो भी कुछ भीख मांगने के लिए ही आते हैं। महाराज! ऐसा कर दो वैसा कर दो, ये कर दो अपना रोना लेकर आते हैं। अपने आपको समझ लोगे, अपने आप को पहचान लोगे तो तुम्हारा सारा रोना मिट जाएगा। तुम भीतर से मालामाल हो और अभी भी फटेहाल बने हुए हो। तुम्हें उसका आभास नहीं है, तुम्हें उसकी पहचान नहीं है, तुम्हें उसका ज्ञान नहीं है। यह इग्नोरेंस मिट गया तो जीवन बदल जाएगा। मेरे जीवन की सारी समस्याओं का समाधान मेरे पास है। जब मैं अपनी अंतर्मुखी चेतना को जगा लूं, मेरे भीतर आध्यात्मिकता प्रकट हो जाए तो मेरे जीवन की दिशा-दशा सब परिवर्तित हो जाए। इंटरेस्ट जगेगा कब? जब इग्नोरेंस मिटेगा। एक बार इग्नोरेंस मिट गया, अपने प्रति इंटरेस्ट जग गया तो इन्वोल्वमेंट कम हो जाएगा।

तीसरी बात इन्वॉल्व (INVOLVE)। इंवॉल्वमेंट घटाइए। अभी किस में ज्यादा इन्वॉल्व हो? दुनियादारी में, मेरे-तेरे में, थारे-मारे में, इसमें इन्वॉल्व हो, आकंठ इन्वोल्व हो, 24 घंटे इन्वॉल्व हो। इधर उधर की बातों में तुम जितना इन्वॉल्व हो अरे भाई! खुद में इन्वॉल्व होओ ना, अपने में डूबो ना। दूसरों के मामले में इन्वॉल्व होने वाला हमेशा दुःखी  होता है। होता है कि नहीं होता? कभी इन्वॉल्व होना नहीं चाहिए, हालत खराब हो जाती है। एक पहलवान से किसी की बकझक हो गई उसने कहा एक घुसा दूंगा तो चौंसठ गिर जाएंगे बाहर। एक घुसा दूंगा तो चौंसठ बाहर आ जाएंगे। एक व्यक्ति वहीं खड़ा था, बोले भैया! दांत तो बत्तीस ही होते हैं चौंसठ कैसे बाहर आएंगे? तेरे भी बत्तीस जोड़ लिए, मुझे मालूम था तू बीच में बोलेगा। बीच में बोलेगा इसलिए बत्तीस तेरे भी जुड़ गए। जहां दूसरों के साथ इन्वॉल्व हुए बत्तीसी बाहर आई। आज सब की यही कहानी है सब घूँसा खा रहे हैं कर्मों का। क्या हो रहा है? कहाँ  इन्वॉल्व है? किसमें इन्वॉल्व हैं? जहाँ मुझे इन्वॉल्व होना चाहिए वहाँ हमारा कोई इंवॉल्वमेंट नहीं है और मुझे जिनसे कोई नाता नहीं रखना चाहिए उसी में आकंठ रचे-पचे हैं। संसारी गोरखधंधे में अपना इंवॉल्वमेंट कम कीजिए। जिसको निज की पहचान हो जाती है, जिसे पता लग जाता है मैं कौन हूँ ? मेरा क्या है? वह सब में रहता है स्वयं में रमता है, सब में रहता है खुद में रमता है, उसका इंटरनल इंवॉल्वमेंट नहीं होता। देखने में लगता है कि वह इन्वॉल्व है, पर सच्चा ज्ञानी करते हुए भी नहीं करने के समान होता है, देखते हुए भी नहीं देखते के समान होता है, चलते हुए भी नहीं चलने के समान होता है।

आप तो इन्वॉल्व क्या इंडल्ज (INDULGE) होते हो। इंडल्ज होना यानि डूब जाना, रच-पच जाना। यह इंडलजिंग जो है, इंडल्जमेंट बहुत भयानक है। एकदम रचे-पचे, डूबे हुए हो इसीलिए दुःखी  हो। सब में एकदम भीतर तक घुसते हो, अपने भीतर सबको घुसाने की चेष्टा करते हो। जब ऐसी चीजों को, ऐसी बातों को अपने जेहन में भरोगे सुख शांति तो समाप्त होनी ही होनी है। नहीं! अधिक इंवॉल्वमेंट ना हो। आप जितना इन्वॉल्व होंगे उतना अशांत होंगे और जितना डिटेच रहेंगे उतने शांत होंगे। कैसे इन्वॉल्व होते हैं कैसे अशांत होते हैं और डिटेच होकर हम कैसे सुखी हो सकते है। देखिए! घर परिवार का काम है, व्यापार है, दुनिया की बातें हैं। एक काम आप कर रहे हैं कर्तव्य भावना से। ठीक है, मैं कर रहा हूँ  मैं निमित्त हूँ , मेरी एक जिम्मेदारी है जिसका मुझे निर्वहन करना है। दूसरी तरफ से आप कर्तत्व की भावना से काम कर रहे हैं, कर्तत्व बुद्धि से, कर्ता बुद्धि से काम कर रहे हैं। नहीं! मुझे यह करना ही है, मेरा किया हुआ है, और मैंने किया है, जैसा मैं चाहूं वैसा ही होना चाहिए। क्या होगा? अंतर आएगा कि नहीं? मैं यहाँ प्रवचन सुना रहा हूँ आप लोगों को, इंटरेस्ट पूर्वक सुना रहा हूँ, और सुना रहा हूँ किस भाव से सुना रहा हूँ कि आप सब का जीवन बदलें और ऐसा क्यों? क्योंकि भगवान की आज्ञा है और गुरु का आशीर्वाद है कि जो मार्ग तुझे मिला है वह मार्ग सबको मिले ऐसी प्रशस्त भावना रखो। आप लोग अच्छे मार्ग में लगे इस भाव से मैं उपदेश दे रहा हूँ। इतने में मुझे कोई आकुलता नहीं, बल्कि आनंद है। किस बात का आनंद? एक कर्तव्य पूर्ति का आनंद। आप लोग मार्ग में लगे यह एक प्रशस्त भावना है कर्तत्व की, पर आपको मार्ग में लगाना ही है यह मेरी बुद्धि में आ जाए तो? मुझे आपको मार्ग में लगाके ही छोड़ना है यह मेरी बुद्धि में आ जाए तो? मैं तुम्हें पकडूँगा, तुम भागोगे, मुझे तुम्हारे पीछे भागना पड़ेगा। अभी तो तुम लोग भाग-भाग कर आते हो और जब मैं तुम्हारे पीछे भागने लगूंगा तो मेरा क्या हाल होगा? बताओ? गड़बड़ होगा ना? यही अशांति, उद्वेग और दुःख  है। कर्तव्य भाव से काम करो और अपना इंवॉल्वमेंट एक लिमिट से बाहर मत करो। अच्छे कार्य में जितना बने इन्वॉल्व होओ और बुरे कार्य में अपना इंवॉल्वमेंट कम से कम रखो। आप लोग क्या करते हो? बुरे कार्यों में इन्वॉल्व रहते हो अच्छे कार्यों में दस बार कोई कहे तो आधे अधूरे मन से करते हो। क्यों? महाराज! जिसमें इंटरेस्ट होगा उसी में हम इन्वॉल्व होंगे, हमारा इंटरेस्ट नहीं है उसमें हम इन्वॉल्व होना पसंद नहीं करते। भाईयों! अज्ञान मिट जाए, सच्चा इंटरेस्ट प्रकट हो जाए तो तुम्हारा इंवॉल्वमेंट स्व के प्रति बढ़ेगा, धर्म के प्रति बढ़ेगा और पाप के प्रति घटेगा। देखो! आप पापात्मा परिणामों से बच नहीं सकते, प्रवृतियों से बच नहीं सकते, गृहस्थी हैं ढेर सारे पाप की प्रवृत्तियाँ आपको करनी पड़ती है, आप लोग करते हैं पर एक सूत्र है पाप से बचने का। इंटरेस्ट कम कर दो, इंवॉल्वमेंट घटा दो तुम्हारा पाप हल्का हो जाएगा। कोई भी अच्छी या बुरी क्रिया, क्रिया मात्र का फलाफल नहीं है। उसमें तुम्हारा कितना इंटरेस्ट है और कैसा इंवॉल्वमेंट है उसके अनुरूप फल मिलता है। आप प्रवचन सुनने के लिए आते हैं। एक इंटरेस्ट पूर्वक आ रहे हैं, नहीं बिल्कुल एक वर्ड भी मिस नहीं करना है, महाराज के पहले पहुंचना है और एकदम तत्परता के साथ सुन रहे हैं, कान लगाकर सुन रहे हैं, एक-एक शब्द को पी रहे हैं।इसका प्रभाव और कुछ लोग हैं, ठीक है महाराज जी  का प्रवचन 8:20 से शुरू होता है 9:20 तक चलता है एक आध वाक्य भी सुन लेंगे तो काम हो जाएगा। महाराज आखिरी में चार बातों का निचोड़ कर ही देते हैं सुन लेंगे काम हो जाएगा। क्या हो गया? क्या हो गया, पहले वाले ने जितना इंटरेस्ट दिखाया आखरी वाले में उतना इंटरेस्ट नहीं है। रिजल्ट क्या होगा? पहले वाले के ऊपर जो असर पड़ेगा, आखरी वाले पर पड़ेगा क्या? आ भी गये यहाँ, प्रवचन में बैठ गए हैं और बैठे-बैठे दिमाग में दूसरी बातें ले आए, इंटरेस्ट प्रवचन में ना होकर अगल-बगल के लोगों के प्रति हो गया है, यहां की व्यवस्थाओं के प्रति हो गया, अन्य बातों में आ गया, और कुछ नहीं तो मोबाइल खोलकर मैसेज चेक करने में लगे हैं। अब क्या है? क्या हो गया है? जहां इंटरेस्ट वहां इंवॉल्वमेंट, जितना इंटरेस्ट उतना इंवॉल्वमेंट और जैसा इंवॉल्वमेंट वैसा परिणाम, वैसा रिजल्ट। इंवॉल्वमेंट की बात है। इंटरेस्ट के अनुरूप ही इंवॉल्वमेंट होता है अगर धर्म में इंटरेस्ट जग गया तो पाप का इंवॉल्वमेंट घटेगा, धर्म में इंवॉल्वमेंट बढ़ेगा। यदकिंचित कोई पाप आपको अनिवार्य रूप से करना भी पड़ता है तो उसमें इंटरेस्ट मत रखो, रस मत लो, इंवॉल्वमेंट कम से कम लो। हमारे यहाँ एक सूत्र आता है

तीव्र मन्द ज्ञाता ज्ञात भावाधिकरण वीर्य विशेषेभ्यस्तद्विशेष: (Time – 46:45 )

किसी भी अच्छी-बुरी क्रिया का परिणाम क्रिया के अनुरूप नहीं होता है उस क्रिया से जुडी हुई भावनाओ की तीव्रता और मंदता के अनुरूप होता है। हम कितनी रुचि से, कितनी तत्परता से, कितने उत्साह से, कितनी शक्ति से उस अच्छी या बुरी क्रिया को कर रहे हैं उससे जुड़ने वाला पुण्य और पाप उतना ही गाढ़ा और पतला होता है। तो क्या कीजिए? अच्छे कार्य को पूरे प्राणों से कीजिए। फुली इन्वॉल्व हो जाइए और बुरे कार्य को मन मसोस कर कीजिए। आप लोग क्या करते है? अच्छे कार्य को मन मारकर करते हैं और बुरे कार्य को पूरी तरह डूब कर करते हैं इसीलिए डूबे हुए हो। रुचि बदलेगी तो जीवन का रंग-ढंग सब कुछ परिवर्तित हो जाएगा। पापात्मक क्रियाओं में, पापात्मक प्रवृत्तियों में हमारा इंवॉल्वमेंट कम से कम हो यह पुरुषार्थ और यह प्रयास हमारा होना चाहिए। देखिए! आप लोग दवाई खाते हो, मिठाई भी खाते हो। मिठाई खाने वाले लोग ज्यादा होंगे, दवाई खाने वाले लोग कम, तो मिठाई खाते समय जो आपकी मानसिकता होती है और दवाई खाते समय जो मेंटलिटी होती है तो क्या इक्वल होती है? क्या होता है? महाराज जी! मिठाई चाव से खाते हैं और दवाई बचाव के लिए खाते हैं। मिठाई खाते हैं, दवाई खानी पड़ती है। है ना? ऐसा तो हर आदमी चाहता होगा कि मेरा सुबह से मुँह  मीठा हो, मेरे सुबह की शुरुआत मिठाई से हो लेकिन ऐसा कोई व्यक्ति मिलेगा जो कहेगा कि हे भगवान! मुझे रोज सुबह सुबह दवाई मिले, कोई नहीं। क्यों? दवाई खाना मजबूरी है और मिठाई मन की मंजूरी है। संत कहते हैं, ‘बस एक ही सूत्र अपनाओ। धर्म का कोई भी कार्य करो उसे मिठाई की तरह से चाव करो और पाप का कोई भी काम करो दवाई की तरह बचाव में करो’। करो मत, करना पड़े। इंवॉल्वमेंट अपने आप घटेगा। वो इन्वोल्वमेंट घटेगा तो वो तुम्हारे जीवन का बचाव करेगा, तुम्हारे जीवन में प्रशस्तता आयेगी, जीवन की राह अच्छी होगी। सब चीजें अपने आप बनते जायेगी। इंवॉल्वमेंट को घटाइए और इधर का इंवॉल्वमेंट बढ़ाइए, एक बात। दूसरी बात, आध्यात्मिक दृष्टि से सब काम करते हुए भी अपने आप को उससे अलग कीजिए कर्ता बुद्धि की भावना मन में हावी मत होने दीजिए।

रे समदृष्टि जीवड़ा, करें कुटुंब प्रतिपाद।

अंदर से न्यारा रहे, खाय खिलावे भात।।

एक सच्चा ज्ञानी जीव घर, परिवार और संसार के सारे कार्य करता है लेकिन करते हुए भी उनसे अलग रहता है। पन्नाधाय की कथा बहुत प्रसिद्ध है, आप सभी को पता है, उदयपुर की घटना है। एक तरफ पन्नाधाय का अपना बच्चा और दूसरी तरफ उदयसिंह। बलवीर जब उनको मारने के लिए आता है, पूछता है, उदयसिंह कौन है? पन्नाधाय ने सोचा कि अगर मैं बता दूं तो जिस राज्य का मैंने नमक खाया है उसके साथ बड़ा गलत होगा, यह इसे मार डालेगा, राज्य अनाथ हो जाएगा। उसने अपने छाती पर पत्थर रखते हुए अपने बेटे की तरफ इशारा किया, यह है उदयसिंह। उसकी आंखों के सामने ही उसके कलेजे के टुकड़े का टुकड़ा-टुकड़ा हो गया, लेकिन पन्नाधाय ने रंच मात्र भी प्रतिक्रिया नहीं की क्योंकि उसको पता था मेरी थोड़ी सी भी प्रतिक्रिया बलवीर के लिए संशय उत्पन्न करेगी और फिर इसे भी मार डालेगा जो ठीक बात नहीं है। वह सहज  बनी रही। पन्नाधाय पूरे भारत की संस्कृति के लिए एक आदर्श बन गई, मेवाड़ के लिए तो थी ही। सम्यकदृष्टि के लिए कहते हैं कि जैसे एक धाय किसी बच्चे को दूध पिलाती है, जिसको भी पिलाती है इतना मातृत्व उड़ेलती है कि कुछ पल के लिए बच्चा यह भूल जाता है कि यह धाय है। उसे लगता है कि यह धाय नहीं है मेरी माँ है लेकिन वह धाय जानती है कि मेरा बेटा कौन है? यह मेरा कर्तव्य है यह मैं कर रही हूँ पर यह मेरा असली बेटा नहीं है। इन्वॉल्व मत होइए, इन्वॉल्व होंगे तो दुखी होंगे। इंवॉल्वमेंट हटेगा तो सुखी रहेंगे।

इंटरेस्ट, इग्नोरेंस, इन्वॉल्व और आखिरी बात हैइंस्पायर(INSPIRE)।

इंस्पायर होइए, एक प्रेरणा जगाइए अपने भीतर, अपने जीवन को बदलने की, अपने जीवन के परिवर्तन की। अगर आपके भीतर सही इंटरेस्ट जग गया, आपका इग्नोरेंस मिट गया तो आप, अपने आप इंस्पायर होंगे। आपके अंदर नई-नई प्रेरणाएं जगेगी, प्रेरणा से संकल्प जगेगा और संकल्प आपको नए रास्ते में चलना समर्थ करेगा। आप अपने आपको कितना इंस्पायरड फील करते हैं? महाराज! जब आप बोलते हैं तो बड़ा इंस्पायरिंग लगता है, बहुत अच्छा लगता है। महाराज! लगता है कि जैसा महाराज बोलते हैं वैसा ही करें, लेकिन कितनी देर तक? जब तक पंडाल में रहते हो इतनी देर तक। यहाँ  से बाहर गए सब हवा। यह बाहर की हवा बहुत खराब है उससे बचिए। एक बात बताऊं, दूसरों की प्रेरणा से तुममें परिवर्तन आए यह निश्चित नहीं है लेकिन स्वयं स्वयं की प्रेरणा से तुम परिवर्तित होओ इसमें कोई संशय नहीं, हंड्रेड परसेंट(100 % ) होगा। स्वप्रेरणा, सेल्फ इंस्पिरेशन। अपने अंदर वह प्रेरणा जगाइए कि मुझे यह बदलना है। वह जाग गई तो जीवन ही बदल जाएगा, सबकुछ पलट जाएगा। इंस्पायर कीजिए, अपने आप को जगाइए और वह सब कुछ जग गया ना तो फिर तुम्हारे जीवन की दिशा ही बदल जाएगी, दशा ही बदल जाएगी। कुछ भी होगा, सबको तुम इग्नोर करने में समर्थ हो जाओगे। सुख होगा-दुःख  होगा, अच्छा होगा-बुरा होगा, अनुकूल होगा-प्रतिकूल होगा, संयोग होगा-वियोग होगा, जय होगी-पराजय होगी, लाभ होगा-हानि होगी। इग्नोर करना सीख जाओगे क्योंकि तुमने अपने जीवन की वास्तविकता को समझा है, तो बस अपने जीवन को सदाबहार, सुखी बनाए रखना चाहते हैं, हर पल प्रसन्नता और आनंद के साथ जीना चाहते हैं तो आज की चार बातें इंटरेस्ट विद इन, इग्नोरेंस को मिटाइए, इंवॉल्वमेंट को घटाइए और अपने आपको इंस्पायर कीजिए। जितना बने इंस्पायर कीजिए आगे बढ़िए आगे बढ़िए, आगे ही बढ़ते जाइए इसी शुभ भाव के साथ, समय आप सब का हो गया है यहीं पर विराम।

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