तिनके सी उलझन

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तिनके सी उलझन
(मुनि श्री प्रमाणसागर जी के प्रवचनांश)

एक नदी सागर में मिलने की ओर अग्रसर थी और बहुत ही तेज़ धार के साथ बही जा रही थी। नदी के तेज़ प्रवाह में दो तिनके भी बहे जा रहे थे।
पहला तिनका पानी के तेज़ प्रवाह के कारण, नदी से जूझ रहा था। वह कुछ देर तेज़ प्रवाह में जूझता रहा। फिर क्या था? नदी का प्रवाह एक दम उछला और उसने तिनके को एक तरफ फेंक दिया। दूसरे तिनके ने सोचा, यह नदी सागर की यात्रा में निकली है, मैं भी कुछ दूर इसके साथ चलता हूँ। वह नदी के साथ बहता चला गया और अहोभाव से बहता-बहता सागर तक पहुँच गया।

देखा जाये तो सागर हमारे जीवन का लक्ष्य है और नदी जीवन की भाग-दौड़। जो इस भाग-दौड़ में छोटी-छोटी उलझनों में, संयोग-वियोग में, लाभ-हानि में उलझा रहता है और आगे नहीं बढ़ता वह दरकिनार हो जाता है और जो इन सबकी ओर ध्यान न देकर, इनसे सीख लेकर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है वह लक्ष्य रूपी सागर में जा मिलता है। यह अब हमें तय करना है कि हमें किस तिनके की यात्रा को स्वीकार करके जीवन को आगे बढ़ाना है।

Edited by: Pramanik Samooh

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