उत्तम मार्दव धर्म

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मार्दव धर्म आत्मा अर्थात् निजात्मा स्व-स्वरूप का धर्म है। जहाँ मृदु भाव या नम्रता नहीं है वहाँ धर्म भी नहीं है। और वहाँ नियम, व्रत, तप, दान, पूजा इत्यादि जो मानव करता है विनय भाव के बिना सभी व्यर्थ गिनाया जाता है। और कहता है कि मैंने ऐसा किया जो भी किया मैंने किया अन्य कोई भी मेरे समान किया नहीं इस तरह कह कर जो मान कषाय करता है वह अपनी आत्मा को ठगता है और दुनियाँ को भी ठगाया समझना चाहिए।

उत्तम प्रवचन

उत्तम मार्दव धर्म - मान को त्यागो
उत्तम मार्दव

उत्तम सूक्तियाँ

  • विनम्र वो नही जो बड़ों को सम्मान दे अपितु वह है जो छोटों का भी मान रखे।
  • ज्यादा बोलने वाले को अभिमान होता है और कम बोलने वाले का मान होता है।
  • अपनी प्रशंसा सुनकर सब सुखी होते हैं, धर्मी तो वह है जो दूसरे की प्रशंसा सुनकर सुखी हो।
  • दूसरा कोई अपमानित करे या ना करे, पर जब व्यक्ति में अहं होता है, तो वह उसे स्वयं ही अपमानित महसूस कराने लगता है।
  • तुम्हारे मन में अहं नहीं, तो कुछ ही बोल दो, बहुत ही lightly लेते हैं, फ़र्क ही नहीं पङता।
  • जो जितना अहंकारी होता है, वो उतना ही मान चाहता है। जितना मान चाहता है, प्रसंग ना मिलने पर अपने को उतना ही अपमानित महसूस करता है। वो अन्दर से अशांति उत्पन्न करता है, चित्त में उद्वेग उत्पन्न करता है।
  • कभी किसी को नीचा दिखाने का भाव ना करें।
  • अहं क्या है? अपने आपको सच्चा और अपने आपको अच्छा मानने की वृत्ति। अपने ही विषय में सोचने की वृत्ति । अपने ही आपको प्रदर्शित करने की वृत्ति।
  • झुकोगे तो मजबूत बनोगे, अकङोगे तो टूट जाओगे।
  • मानी की दो ही पहचान हैं: १) जो सम्मान की चाह करे २) जो अपमान को बर्दाश्त ना कर सके।

उत्तम कहानियाँ

उत्तम लेख

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