छोटे कस्बों में कोई अपनी बेटी क्यों नहीं देना चाहता?

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शंका

आज समाज में सबकी मानसिकता है कि बेटियों की शादी सर्विस वाले लड़के से की जाए, बिज़नेस वाले लड़कों से नहीं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि गाँव-कस्बों में ही नहीं, बल्कि शहरों तक में बहुत से व्यवसायी युवकों को कन्या नहीं मिल रही है। इसलिए मजबूरन माँ-बाप को आदिवासी कन्या या अन्य वर्गों की कन्याओं को ब्याह कर लाना पड़ रहा है। इससे धर्म एवं संस्कारों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है, इस समस्या के समाधान के लिए समाज को मार्गदर्शन देने की कृपा करें?

समाधान

ये बहुत बड़ी समस्या है। इसका समाधान अभी जब मैं सम्मेद शिखर जी से इधर आ रहा था, तब रास्ते में देखा। वाराणसी- इलाहाबाद के बीच कई छोटे-छोटे गाँव मिले, एक गाँव मिला मजमा, एक गाँव मिला सरायगिर और एक गाँव था चंपा। ये ठेठ गाँव हैं और यहाँ जयसवाल समाज के घर हैं। उन लोगों ने एक बहुत अच्छा नियम बना लिया कि वो अपनी बेटी उसी को देते हैं जो कोई एक बेटी बदले में दिलवाता है। तो उनकी पूरी व्यवस्था छोटे गाँव में बनी हुई है, संस्कार बने हुए हैं। 

आज छोटे गाँव के लोग बेटी तो चाहते हैं पर अपनी बेटी को खुद बड़ी जगह भेजना चाहते हैं, तो कैसे व्यवस्था बनेगी। यह चेतना जगनी चाहिए, यदि छोटे जगह के लोग अपने घर और परम्परा की व्यवस्था बनाए रखना चाहते हैं। जमा-जमाया बिजनेस है, सारा सेटअप है, यदि ऐसा ही होता रहा तो पूरे के पूरे गाँव खाली हो जाएँगे। हमारे धर्मायतन भी नष्ट हो जाएँगे। तो कैसे करें? लोग इसकी व्यवस्था बनायें कि ‘हम बेटी तभी देंगे, जब बेटी लेंगे!’ क्योंकि सारी बेटियाँ बड़े शहरों में चली जाती हैं, बड़े शहर की बेटियाँ छोटे गाँव में आना नहीं चाहती, तो छोटे गाँव वाले शादी कहाँ करेंगे? गाँव खाली हो करके शहर में आ जाएँगे और शहर में आना सहज नहीं है। वहाँ आना, व्यापार जमाना बहुत टेढ़ी खीर है और फिर हमारे धर्मायतनों की रक्षा खत्म हो जाएगी, हमारे मुनियों का विहार अवरुद्ध हो जाएगा, यहाँ बड़ी समस्याएँ आएँगी। 

इसका सबसे अच्छा तरीका तो यही है, लोगों में चेतना जागृत हो कि ‘हमारे यहाँ तुम कोई बेटी देने को तैयार हो गए, तभी हम अपनी बेटी देंगे’ और दूसरा बेटियों को भी छोटी और बड़ी जगह की मानसिकता से मुक्त होने की आवश्यकता है। छोटी और बड़ी जगह मत देखो, अच्छे आदमी को देखो जिसके साथ रह कर के अपने जीवन को अच्छी तरह से बिता सको।

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