जैन मुनि कपड़ें क्यों नहीं पहनते हैं?

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शंका

जैन मुनि कपड़ें क्यों नहीं पहनते हैं?

समाधान

यह प्रश्न केवल तुम्हारा नहीं, बहुतों का है; इस सवाल का उत्तर हर एक जैन के पास होना चाहिए। एक बार एक पत्रकार ने मुझसे पूछा कि “महाराज! आप कपड़े क्यों नहीं पहनते?” मैंने उससे पलटकर पूछा- “आप कपड़े क्यों पहनते हैं?” वह थोड़ा सकपकाया, कुछ नहीं सूझा। 

मैंने फिर पूछा “जब पैदा हुए थे तब पहने थे?” 

बोला- “नहीं महाराज!”

महाराज जी- तब क्या स्थिति होती थी?

पत्रकार – किसी ने पहना दिया तो पहन लेते थे नहीं तो ऐसे ही घूमते थे।

महाराज जी- क्या कोई फर्क पड़ता था।

पत्रकार- नहीं महाराज! उस समय कोई लज्जा नहीं, संकोच नहीं, कोई विकार भी नहीं था।

महाराज जी- अब अगर कोई आपके कपड़े उतार दे तो?

पत्रकार- अब तो यह हो नहीं सकता; क्योंकि अब लज्जा भी है, संकोच भी है, विकार भी है।

महाराज जी- आपने जो कपड़ा पहना है वह अपने विकार छुपाने के लिए पहना है?

पत्रकार- जी बिल्कुल?

महाराज जी- तुम्हारे अंदर विकार है, बहुत सारी चीजें छुपाने लायक है इसलिए तुम्हें कपड़े की जरूरत है। हमारे अंदर कोई विकार नहीं, हमारे पास छुपाने लायक कुछ नहीं इसलिए हमें कपड़े की कोई आवश्यकता नहीं है। दिगंबर मुनि निर्विकार है इसलिए उसे कपड़े की कोई आवश्यकता नहीं है।

फिर मैंने उससे पलट करके कहा- “किसने कहा कि हमने कपड़ा नहीं पहना? हमने कपड़े पहने हैं। आपको भ्रम है कि हम बिना कपड़ों के हैं।”

 पत्रकार- कुछ दिख तो नहीं रहा मुझे!

महाराज- देखोगे तो दिखेगा! इन आँखों से नहीं दिखेगा, मेरे कपड़े अलग हैं। हम नग्न नहीं दिगंबर हैं। नग्न तो भोगी विलासी भी होता है। नग्न और दिगंबर में बहुत अंतर है।जो भोगी विलासी है वह नंगा है और दिगंबर वह, जिसने दिशाओं को अंबर यानी वस्त्र बना लिया है। तुम्हारे वस्त्र तत्वों के बने हैं और हमारे वस्त्र दिशाओं से बने हैं; हमने दिशाओं को ओढ़ लिया है। तुम्हारे कपड़ों का माप है, हमारे वस्त्र अमाप हैं। तुम्हारे कपड़े को रोज धोना पड़ता है, वे गंदे होते हैं, मैले होते हैं, फटते हैं; हमारे वस्त्रों को धोने की जरूरत नहीं है। हमने एक बार पहन लिया, प्रकृति ने पहना करके भेजा और आज तक हैं, जीवन के अंतिम क्षण तक रहेंगे। तुम्हारे कपड़े का उल्टा सीधा भी होता है पर हमारे वस्त्र का ना कोई उल्टा है न सीधा है, अपितु दुनिया में जितने उल्टा सीधा करने वाले हैं उन सब को हम लोग उल्टे से सीधा करने का काम करते हैं। 

जहाँ तक सवाल है कि आज समाज में रहते हुए इस चर्या में बदलाव, ठीक है, साधु जब एकाकी विचरण करता था तो उसका कोई जनसंपर्क नहीं, जनापेक्षाएँ नहीं। इस हिसाब से परिवर्तन आता है, लोग कहते हैं कि “आज आप माइक्रोफोन का उपयोग करते हैं तो एक वस्त्र का भी प्रयोग कर लें!” माइक्रोफोन का प्रयोग होता है धर्म की प्रभावना के लिए! इससे बहुजनों को लाभ मिलता है; इसलिए उपयोग करते हैं। आप लोग लगा देते हैं हम लोग ना नहीं करते हैं। यह देखकर हम वस्त्र स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि वस्त्र का खंड लेना यानी सौ झमेला पालना। कहते हैं- फाँस तनिक सी तन को साले, चाह लंगोटी की दुख वाले” वह आते ही पूरी गृहस्थी आएगी। आप कह सकते हो कि “महाराज! हम प्रोवाइड(PROVIDE) करेंगे इसमें कोई झमेला नहीं।” तो मैं आपसे यह कहूँगा कि दिगंबरत्व है हमारा वेष नहीं, हमारी साधना है। केवल कपड़े उतार देने का नाम दिगंबर नहीं है, कपड़े उतारने के बाद निर्विकार और सहज स्थिति में बने रहना, यह दिगंबरत्व है, जो कपड़ा स्वीकारने से नहीं होगा। इसलिए इस साधना में इस चर्या में कोई कंप्रोमाइज की बात नहीं। यह हमारा सहज, स्वाभाविक, प्राकृतिक रूप है। 

और फिर मैंने उससे पूछा- “आप इतनी देर से मेरे पास बैठे हो, आपको क्या अनुभव हो रहा है? किसी साधु के पास बैठे हो या किसी नंगे के पास बैठे हो?” दोनों हाथ जोड़े और बोला – “माफ करें, आपके पास बैठने के बाद लगता नहीं कि हम किसी नग्न के पास बैठे हैं, यह लग रहा है कि हम किसी ऊर्जा-वान साधु के पास बैठे हैं।” यही दिगंबरत्व की महिमा है! इसे आप जानिए और यदि किसी के मन में दिगंबरत्व को लेकर के सवाल आता है, तो बताइए “यह अश्लीलता नहीं, यह हमारे स्वाभाविक रूप की स्थिति है, यथाजात मुद्रा है, निर्विकार मुद्रा है। इसीलिए महात्मा गांधीजी ने कहा था कि “नग्नता मनुष्य की आदर्श स्थिति है, यह उसका प्राकृतिक रूप है और युग युगांतर से भारत की संस्कृति में इसे सम्मान दिया गया, प्रतिष्ठा पूर्ण दृष्टि से देखा गया। इसलिए हमें इसके मान की सुरक्षा करनी चाहिए और जीवन को उसी क्रम में आगे बढ़ाना चाहिए।

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